Previous
Previous Product Image

August 2023 सावन भादो विशेष

Original price was: ₹25.00.Current price is: ₹24.00.
Next

OCTOBER 2023 जानलेवा प्लास्टिक

Original price was: ₹25.00.Current price is: ₹24.00.
Next Product Image

September 2023 पर्वों में प्रकृति

Original price was: ₹25.00.Current price is: ₹24.00.

हम अपने पर्वों का सम्मान करें, उन्हें पूरे मन से जीएं और अपने बच्चों को भी सिखाएं कि पर्व मनाए कैसे जाते हैं लेकिन यदि यह भी हो कि हम उस दिन प्रकृति से उस पर्व के जुड़ाव पर आने वाली पीढ़ी से चर्चा आरंभ करें, सुधार की शुरुआत हम स्वयं भी करें और पर्वों के मूल में निहित प्रकृति के संरक्षण पर समग्र होकर कार्य आरंभ करें तब देखिएगा कि पर्व का उत्सवी आनंद कई गुना बढ़ जाएगा, हमारे बच्चे उस सच को जानें जिस सच को हम जानते तो थे लेकिन उसकी ओर से अंजान बने रहे क्योंकि प्रकृति और उसका संरक्षण कभी भी हमारी प्राथमिकता के दायरे में सर्वोपरि रहा ही नहीं।

Add to Wishlist
Add to Wishlist

Description

प्रकृति रहेगी तभी पर्व रहेंगे

अब तक हमने धर्म की नजर से प्रकृति को खूब देखा है, इस आशय से इसे देखा जाए संभवतः इसके मूल में प्रकृति संरक्षण ही रहा होगा, लेकिन अब तक की प्रकृति की स्थितियों का आकलन करें तो पाएंगे कि हमें नजरिया बदलना होगा। अब हम प्रकृति संरक्षण को धर्म मानकर उसे संवारने में जुट जाएं, प्रकृति को अपना मूल कर्तव्य, अपनी प्रार्थना, अपना कर्म, अपना संकल्प सभी स्वतः ही स्वीकार कर लें। हम पर्वों में प्रकृति को महसूस करते रहे, उसके संरक्षण की आवश्यकता भी महसूस करते रहे, उसके क्षरण की सूचना पर हम शीश भी हिलाते रहे लेकिन नहीं कर पाए तो उसका संरक्षण।
बहरहाल, समय कहता है कि प्रकृति है तो जीवन है, जीवन है हम और आप हैं और जब हम और आप हैं तभी आगे का भूगोल और जीवन का विज्ञान संभव हो पाएगा। सोचिएगा कि क्या वाकई पर्वों में प्रकृति के समावेश के सच को हम समझ पाए, स्वीकार कर पाए यदि हां तो प्रकृति के हालात इसका विरोध करते हैं और यदि नहीं तो इतने वर्षों हम इन पर्वों में बिना मूल के ही केवल उत्सवी नाद की अवस्था में थे। सोचने का समय है क्योंकि वाकई यह सच है कि बिना पर्वों और उत्सवों के हमारी दुनिया बेहद फीकी और रंगहीन से हो जाएगी लेकिन दूसरा पक्ष भी देखें तो इन पर्वों से मिले संदेश को हम आत्मसात नहीं कर पाए और जब हम सुधार नहीं कर पाए तो हमारा ज्ञान और धैर्य सब कोरे कागज की तरह है जिस पर लिखा तो बहुत गया लेकिन उसे याद कोई नहीं रख पाया।
हम अपने पर्वों का सम्मान करें, उन्हें पूरे मन से जीएं और अपने बच्चों को भी सिखाएं कि पर्व मनाए कैसे जाते हैं लेकिन यदि यह भी हो कि हम उस दिन प्रकृति से उस पर्व के जुड़ाव पर आने वाली पीढ़ी से चर्चा आरंभ करें, सुधार की शुरुआत हम स्वयं भी करें और पर्वों के मूल में निहित प्रकृति के संरक्षण पर समग्र होकर कार्य आरंभ करें तब देखिएगा कि पर्व का उत्सवी आनंद कई गुना बढ़ जाएगा, हमारे बच्चे उस सच को जानें जिस सच को हम जानते तो थे लेकिन उसकी ओर से अंजान बने रहे क्योंकि प्रकृति और उसका संरक्षण कभी भी हमारी प्राथमिकता के दायरे में सर्वोपरि रहा ही नहीं।
पर्यावरण के हालात जितने खस्ताहाल होते जा रहे हैं, पंच तत्वों में सभी की स्थितियों पर चिंता लाजमी है क्योंकि मनुष्य ने तो आंखें मूंद रखी हैं, उसे प्रकृति और उसके तत्वों का उपभोग तो आ गया लेकिन उस चक्र को बेहतर बनाए रखने के लिए उसके संचालन में मनुष्यता की जिम्मेदारियां समझ ही नहीं आईं। सब मिट रहा है, हम हैं कि उत्सवी अंदाज में जीये जा रहे हैं, लेकिन प्रकृति है कि आहत हुई जा रही है, कैसा अजीब सा दौर है, नदियां प्रदूषित हैं लेकिन हमें घाटों पर स्नान कर पुण्य की िंचंता है, घाट और उस नदी के प्रदूषण पर हम अक्सर पीठ फेर लेते हैं। हवा में प्रदूषण, जमीन पर केमिकल की मात्रा की अधिकता, जंगल का सफाया, वन्य जीवों का असुरक्षित और बदहवास सा यह दौर…ओफ….कहां जाकर थमेगा लेकिन हमें प्रकृति अपने उत्सवों और पर्वों पर याद आती है लेकिन उसके बाद हम उसे बिसरा देते हैं, सुधार संभव है यह कीजिएगा यदि कुछ समझ नहीं आ रहा है तो-
– हर उस पर्व जिसमें प्रकृति का समावेश है जिसमें हम उसे पूजते हैं उस दिन हर व्यक्ति संकल्प ले, यदि मौसम अनुकूल है तो पौधारोपण करें और उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी लें।
– नदियों पर स्नान करने जाएं, लेकिन घाटों पर गंदगी या प्रदूषण या कोई नदी में कचरा फैंकता है तो उसे रोकें, स्वयं वालेंटियर और नदी के पुत्र होने की भूमिका का निर्वहन करें।
– वैसे तो सभी पौधों का इस प्रकृति में अपना अपना महत्व है लेकिन विशेष अवसरां पर हम नीम, पीपल, बरगद, तुलसी, आंवला, सहजन जैसे पौधों को खूब रोपें।
– जल की बर्बादी रोकें, जहां नल से पानी बहता दिखे स्वयं ठहर जाएं और उस टोटी को बंद करें और आसपास के लोगों को समझाईश भी दें।
’- उत्सवों और पर्वों पर प्रकृति के प्रति जागरुकता के लिए मंथन का भी समय अवश्य निकालें, बच्चों को प्रकृति का मौजूदा सच बताएं और खुद उसे सुधारने में जुट जाएं।
– पॉलीथिन की आदत बहुत बुरी है, हमें पॉलीथिन को हमेशा के लिए ना कहना होगा और घर से कपड़े का झोला ले जाने की आदत डालनी होगी। सुधार तो बहुत हैं लेकिन हम स्वयं सोचना आरंभ करें और मानें की प्रकृति का संरक्षण हमारी आवश्यकता है और हमारा सर्वथा पहला कर्तव्य। ध्यान रहे कि प्रकृति रहेगी तभी उत्सव और पर्व रहेंगे…वरना चीखते दौर में केवल असहनीय दर्द होता है उसे हम सह नहीं पाएंगे…। समय रहते जाग जाएं।

 

संदीप कुमार शर्मा,
प्रधान संपादक, प्रकृति दर्शन

Reviews

There are no reviews yet.

Be the first to review “September 2023 पर्वों में प्रकृति”

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Shopping cart

0
image/svg+xml

No products in the cart.

Continue Shopping