Description
बदलाव खूबसूरत होता है उसे अंगीकार करना चाहिए
हम वसंत को बहुत चाहते हैं, ठिठुराती ठंड के बाद मौसम बदलता है, पत्ते गिरते हैं, हवा ठंडी और गर्म का मिश्रण ओढ़कर हमें छूती हुई गुजरती है, यह अहसास करवाते हुए कि सिरहन को अब सूर्य की तपिश दूर कर देगी और हम खिलखिला उठते हैं, प्रकृति हमें इस समय वासंती रंग ओढ़कर समझाती है कि बदलाव खूबसूरत होता है और उसे हमेशा अंगीकार करना चाहिए।
बहरहाल हममें से वसंत को चाहने वालों की संख्या निश्चित ही अधिक होगी लेकिन वसंत तो हर वर्ष आता है, हम उससे अंगीकार क्या करते हैं, क्या सीखते हैं, क्या संकल्प लेते हैं और किस बदलाव के साथ अगले वर्ष उससे मिलते हैं ऐसा कुछ भी नहीं होता क्योंकि हम मौसम में बदलाव को महसूस तो करते हैं लेकिन उसके सबक पर ध्यान नहीं देते क्योंकि हमारा वासंती अनुराग प्रेम को तो अभिव्यक्त करना सिखा जाता है लेकिन वासंतिक हो जाने के पहले और बाद में भी वासंतिक बने रहने की परिभाषा हम हर बार भूल जाते हैं। यह भी समझना जरुरी है कि शरीर ही उस प्रेम को अभिव्यक्त करने का एक माध्यम है, जैसे प्रकृति के पास पौधे, फूल, रंग, हवा, पानी, धूप और उसका नया संदेश लेकर आता कोई मौसम। सोचता हूं कि वसंत में हम घरों से बाहर आकर उसके रंग, उसके आनंद को खुलकर जीते हैं, धूप और हवा सभी हम स्वीकार करते हैं तो शेष मौसम हमें स्वीकार्य क्यों नहीं होते ? मैं सीधे अर्थों में कहना चाहता हूं कि जब ठिठुरन होती है या फिर बहुत अधिक गर्मी होती है तब हम उसके विपरीत जाकर उसके विरोध को अंगीकार कर अपने वासंती सबक और शरीर का हनन किसलिए स्वीकार्य कर लेते हैं। यह शरीर उस परमपिता ने बहुत अदभुत बनाया है क्योंकि इसे पंच तत्वों का शरीर कहा जाता है तो पंच तत्वों का बना रहे तभी यह दीघार्य होगा, स्वस्थ्य होगा और चैतन्य होगा। एक समय प्रकृति हमें ठिठुरन के कारण अंदर तक नमी से भर देती है लेकिन सोचिएगा कि वही प्रकृति उस नमी को ग्रीष्म में पूरी तरह से सुखा दिया करती है और बहुत अधिक सूख जाने के बाद बारिश और उन रजित बूंदों के स्पर्श से उसे दोबारा संचारित और उत्सर्जित करती है। पूर्व के वर्षो में देखेंगे तो मौसम को आप इसी तरह स्पर्श करते रहे, आप उसी के अनुसार जीते रहे और स्वस्थ्य रहे, अधिक उम्र पा सके। अब गर्मी में हमें एयर कंडीशनर चाहिए क्योंकि हमें गर्मी को मुंहतोड़ जवाब अपने भौतिक विकास से देना है और हम 45 तापमान में ठंडक को जीने के आदी हो गए हैं हालांकि तापमान प्रकृति की मर्जी ने नहीं बढ़ा उसमें हमारी सनक और बेतुकी भौतिकवादी विकास की जिद समाहित है। हम वसंत पर लौटें और यदि हम उसे वाकई अब तक जी पा रहे हैं, महसूस कर पा रहे हैं उसे अंगीकार करने का साहस हममें शेष है तो संकल्प लीजिए कि प्रकृति के अगले मौसम अर्थात ग्रीष्म को भी हम वसंत की तरह ही स्वीकार्य करेंगे और उसके बाद बारिश को हम इस शरीर का प्रमुख तत्व मानकर अंगीकार करेंगे। प्रकृति के आगे वैसे भी मानव का कद है ही कहां, लेकिन एक भ्रम ने हमें भटका रखा है, प्रकृति के तौर तरीकों से जीते हुए सदियां बीत गईं तो अब क्या परेशानी है उसी तरह जीना आरंभ कीजिए। देखिएगा कि वसंत हमें देखकर अगली बार दोगुना ठहाके लगाएगा और हम हर मौसम को अपने विचारों से निकालकर हकीकत में अंगीकार कर पाएंगे। वसंत में पत्तों का गिरना और उसके बाद नए आना ये बताता है कि प्रकृति का प्रकृति से कहीं कोई विरोध नहीं है लेकिन पत्तों के गिरने और दोबारा आने के लिए वृक्षों का होना जरुरी है, प्रकृति को असहाय बनाने की जगह उसके हो जाएं….क्योंकि निर्बल प्रकृति बहुत खौफनाक होती है उसे देखने और जीने का साहस हममें नहीं है, प्रकृति कि किसी भी तत्व पर संकट का आशय है कि मानव तिनके की तरह उखड़ जाएगा, बात यहां तक पहुंचे ही क्यों जब हमें वसंत से अनुराग है तो प्रकृति का मूल भी हम समझते हैं तो स्वीकार्य क्यों नहीं करते…समझिएगा यह वसंत का भी इशारा है।
वसंत से सीखें और वासंतिक हो जाएं…कोई एक रंग उसी प्रकृति से मांगकर।
संदीप कुमार शर्मा, प्रधान संपादक,
प्रकृति दर्शन पत्रिका
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