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कौन जहां को गई गौरेया…कैसे लौटेगी
दोस्तों, आखिर कब तक मन को समझाते रहेंगे कि गौरेया लौट आओ…यह आंगन तुम बिन सूने हैं, सूखे हैं हमारे मन और ये जीवन। सच तो यह है कि गौरेया अब भी बसती है लेकिन चहचहाहट सुनाई नहीं देती, केवल महसूस होती है। हमारे भावों, यादों और अहसासों में गौरेया अब भी है और यदि उसके लिए बेहतर प्राकृतिक माहौल नहीं बनाया गया तो एक दिन यादों और भावों से फुर्र होकर वह चित्रों में खो जाएगी… ओह सोचिएगा कि कितना खौफनाक होगा वह पल कि जब हम गौरेया को चित्रों में देखेंगे और छूकर उसकी चंचलता और अपने बचपन से जुड़ाव को महसूस कर रो पडें़गे, क्योंकि गौरेया अकेले नहीं खोएगी, साथ खोएगा हमारा बचपन, हमारी यादें, उम्मीद, चहचहाहट और कच्ची मिट्टी की से महकते आंगन में यादों में कहीं लोरी सुनाती मां…।
गौरेया से हमारा रिश्ता बहुत खास है क्योंकि हम उसे केवल एक पक्षी नहीं मानते वह हमारे परिवार का एक हिस्सा हुआ करती थी, उसके आने और जाने के दौरान अहसास होता था कि आंगन में उसका होना कितना अनिवार्य है और उसके बिना आंगन एक सूनी और सूखी जमीन भर है…और कौन नहीं चाहता कि हमारी अपनी जमीन महके।
काश कि हम समझ पाते कि इतनी मासूम गौरेया इस माहौल में कैसे जीएगी क्योंकि हकीकत की जमीन बेहद सख्त है और उस में न तो पानी है और न ही छांव। हमारी महत्वकांक्षाओं ने तापमान इतना अधिक कर दिया है इसे सहना वैसे भी गौरेया जैसे अन्य परिदों के लिए आसान नहीं है। सोचिएगा कि 50 तक तापमान पहुंचने लगा है, धूप भरी दोपहरी में हम तो घरों में दुबक जाते हैं, लू चलती है और उन गर्म थपेड़ों में मासूम पक्षी कैसे अपने आप को संयमित रख पाते होंगे। गौरेया और उनके जैसे नन्हें पक्षियों को बचाने के लिए हमें अंदर से बहुत मजबूती से खडे़ होने की आवश्यकता है। कोरी बातों से कुछ नहीं होगा, उस माहौल को, उन हालातों को बदलना आवश्यक है। हम गंभीर नहीं हैं क्योंकि प्रकृति इन हांफते हालातां से उबरकर बेहतर अवस्था नहीं आ पा रही है, हालात खराब होते जा रहे हैं।
गौरेया को छांव चाहिए, जल चाहिए, रहने की सुरक्षित जगह चाहिए, झुलसती गर्मी में कमी और वही पुराने जमाने के लोगों जैसा पारिवारिक स्नेह।
हम चाहते हैं कि आंगन में गौरेया चहलकदमी करे तो आंगन भी चाहिए…आंगन खत्म हो रहे हैं क्योंकि हमारे गांव और घरों पर महानगरों की विचारधारा हावी होने लगी है। पहले घरों में रौशनदान थे, खुले रहते थे, हवा आती थी और साथ चली आती थी चहचहाती गौरेया। आजाद और बेखौफ गौरेया कहीं भी अपना घोंसला बनाती थी, हम इतने सहज और उदार थे कि उस घांस-फूस के घौंसले को तब तक नहीं हटाते थे जब गौरेया स्वयं आना बंद न कर दे…। हमने उसे स्नेह दिया, अपनापन दिया, घर दिया, सुरक्षा दी, माहौल दिया, जल दिया, छांव दी…लेकिन यह सब अब नहीं है। केवल पुरानी यादें हैं और एक भाव कि गौरेया सुरक्षित रहनी चाहिए…सोचिएगा कि गौरेया आखिर लौटे भी तो कैसे…वह किस जहां गई और इस जहां कैसे हो वापसी ? अभी भी कुछ हिस्सों में गौरेया हैं, जहां हैं वहां ऐसे प्रयास होने चाहिए कि उनकी संख्या तेजी से बढे़ और खूब चहचहाहट बिखेरे लेकिन जहां वह नजर नहीं आती वहां हालात सुधारने की ओर ध्यान देना होगा…दे दीजिए एक सुरक्षित कच्चा और गोरब से लिपा आंगन और घर में एक रौशनदान…जहां से स्वच्छ वायु के साथ किसी भी दिन भी पूरे भरोसे से चली आए अपनी गौरेया।
संदीप कुमार शर्मा,
प्रधान संपादक, प्रकृति दर्शन
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