Description
क्या हमारी जल संस्कृति (Jal Sanskriti )ने हमें ऐसा ही बनाना चाहा था?
जल संस्कृति का बदलता स्वरूप
क्या आपने कभी यह सोचा है कि हमारी जल संस्कृति Jal Sanskriti यानी जल से जुड़ी संस्कृति ने हमें क्या सिखाया था ? आज जब हम प्यास से बेहाल हैं, तपती गर्मी हमें झुलसा रही है, तब यह प्रश्न बार-बार मन में उठता है — क्या यही वह भविष्य था जिसकी कल्पना हमारी संस्कृति ने की थी?
20-25 साल पहले किसी ने नहीं सोचा था कि जल संकट इस कदर गहरा जाएगा। लेकिन यह आज का यथार्थ है — न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया जल संकट से जूझ रही है। परंतु भारत जैसे देश, जिसकी जल संस्कृति Jal Sanskriti समृद्ध रही है, वहां यह संकट और भी दुखदायी है।
बदहाल जलस्रोत और हमारी जिम्मेदारी
हमारे देश की परंपरा में धार्मिक स्थलों के पास कुएं, तालाब और बावड़ियाँ आम बात थी ।
ये केवल जलस्रोत नहीं थे, बल्कि हमारी जल संस्कृति Jal Sanskriti का अभिन्न हिस्सा थे।
आज ये कुएं और बावड़ियाँ या तो कचरे से पट गई हैं या पूरी तरह से गायब हो चुकी हैं ।
तापमान बढ़ने के पीछे कई वैज्ञानिक कारण हो सकते हैं, लेकिन जलस्रोतों के नष्ट होने का कारण सिर्फ और सिर्फ हमारी लापरवाही, स्वार्थपूर्ण विकास नीतियाँ और संस्कृति के प्रति असंवेदनशीलता है। हमने खुद अपने हाथों से जल संस्कृति Jal Sanskriti को नष्ट किया।
बावड़ियाँ जो जीवन देती थीं, अब इतिहास बन गईं
कभी राजाओं द्वारा बनवाई गई बावड़ियाँ समाज के लिए जल का अमूल्य स्रोत हुआ करती थीं। ये संरचनाएँ सिर्फ तकनीकी चमत्कार नहीं थीं, बल्कि संस्कृति, वास्तुकला और जल प्रबंधन का मेल थीं। आज उन्हें भुला दिया गया है। क्या हमने यह सोचने की कोशिश की कि वे बावड़ियाँ आज भी हमारे काम आ सकती थीं?
सीमेंट के जंगल में गुम होती जल संस्कृति
आज का विकास केवल ऊँची इमारतों तक सीमित हो गया है। सीमेंट, कंक्रीट और लोहे की छाँव में हमने न केवल अपने जंगलों को बल्कि अपने जलस्रोतों को भी खत्म कर दिया है। वृक्षों की जगह पार्किंग ले रही है और बावड़ियों की जगह मॉल बन रहे हैं।
क्या यही है हमारी प्राचीन जल संस्कृति Jal Sanskriti का आदर्श?
हमारी जिद और संस्कृति के मूल्यों का टकराव
हमारे पूर्वज जल को देवता मानते थे। जल का सम्मान करना हमारी संस्कृति का हिस्सा था। पर आज, हमने आधुनिकता के नाम पर यह सब त्याग दिया है। हम संस्कृति की बात तो करते हैं, लेकिन उसके सार को अपनाते नहीं।
कल जिस कुएं की मुंडेर पर बैठकर हम दुख-सुख साझा करते थे, वह ठौर आज इतिहास हो गया है।
अब भी समय है – जल संस्कृति को पुनर्जीवित करने का
यदि हम सच में अपनी संस्कृति से प्रेम करते हैं, तो हमें अपनी जल संस्कृति Jal Sanskriti को बचाना होगा। खो चुके जलस्रोतों को खोजें, उन्हें पुनर्जीवित करें। लोगों को जागरूक करें कि यह केवल पानी की बात नहीं है, यह हमारी पहचान, संस्कृति और भविष्य की बात है।
हम तब तक “पानीदार” नहीं कहलाएंगे जब तक हम जल के प्रति अपनी जिम्मेदारी को नहीं समझेंगे।
निष्कर्ष – संस्कृति हमें प्यासा नहीं बनाना चाहती थी
हमारी संस्कृति हमें अंदर और बाहर से समृद्ध बनाना चाहती थी, प्यासा नहीं। आज जब जीव-जंतु पानी की तलाश में भटक रहे हैं, जब तपती धरती पर वृक्ष भी जगह नहीं पा रहे, तब हमें रुककर सोचना होगा — क्या हमारी संस्कृति ने हमें ऐसा ही बनाना चाहा था?
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