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हमें शहरी बसाहट पर पुनः मंथन करना होगा
बारिश जो कभी मन को छू लिया करती थी, जिस पर नेह गान लिखे और गाए जाते थे, जिससे भावनाओं का रिश्ता था, जिससे रिश्तों में मिठास घुलती थी, सावन के झूलों से लेकर बेटियों के पिता के घर लौटने के भाव में कहीं न कहीं बारिश होती थी। क्या हुआ जो मन को गहरे तक छू जाने वाली बूंदें अब आफत कही जा रही हैं, क्या कोई क्रोध है, क्या कोई अनियंत्रण की स्थिति है ?
सोचने को बहुत है लेकिन सोचने से भी अधिक जरुरी अब जमीनी कार्य करना है। समय बीतता जा रहा है लेकिन हम बारिश से भावनाओं का रिश्ता कायम नहीं रख पा रहे हैं, अथाह बारिश के बावजूद वह रिश्ता सूख रहा है, उस रिश्ते में दरारें गहरी होती जा रही हैं। सोचिएगा कैसा अजीब सा सच है कि बारिश है लेकिन उसके आने की अब प्रतीक्षा तो होती है लेकिन उसके आने से पहले हम अपने बचाव के रास्ते तलाशने लगते हैं, हम अपने घरों, दरवाजों और दालानों में उसके स्वागत की बात नहीं सोचते, हम उससे बचकर घर में दुबकने लगे हैं, कुछ तो है जो खो रहा है बारिश और हमारे बीच से। कुछ तो है जो खत्म हो रहा है प्रकृति और हमारे बीच से।
अब बात बाढ़ की करें तो उससे बहुत पहले हमें यह ध्यान आता है कि यह प्राकृतिक आपदा कम है और मानवजनित आपदा अधिक कही जा सकती है क्योंकि हम नदियों के प्रवाह क्षेत्र को बाधित कर रहे हैं, हम प्रकृति के हर तत्व के लिए अपने सुविधानुसार प्लान बना रहे हैं। जंगल, नदी, वायु, पहाड़ सब बाधित हैं, हम आखिर कैसे चीख सकते हैं अपने दर्द पर जबकि हमने उस प्रकृति को अंदर तक गहरे कुरेदा है, एक बार नहीं अनेक बार उसे कुरेदा है और उससे हमारा व्यवहारिक संतुलन भी खराब हो चुका है। बाढ़ जब शहरों के भीतरी हिस्सों में दाखिल हो रही है तो उसके लिए टाउन प्लानिंग पर कार्य करना जरुरी है, नदियां उफनकर यदि शहर में दाखिल हो रही हैं तो सोचना होगा कि हमने कहां उस नदी को छेड़ा है, किन किनारों पर हम उसे आहत कर आए हैं। बाढ़ के कारण यदि हम बारिश का उत्सव मनाना भूलकर उसे कोसना सीखने लगे हैं तो यह सरासर गलत है क्योंकि बारिश यदि बाढ़ हो रही है तो हम अधिक जिम्मेदार हैं लेकिन यदि बारिश नहीं होती तो असंख्य जीव जंतु, पौधे, पक्षी सभी इस मानवीय सूखे की मार झेलते नजर आएंगे। हमेंं यह अधिकार किसने दिया कि हम बारिश को उसके खौफनाक स्वरुप तक लाने के बाद उसे ही कोसना आरंभ कर दें।
दुनिया के अनेक देश हैं जो सुधार पर कार्य कर रहे हैं, बाढ़ से होने वाले नुकसान से बचने पर कार्य करने लगे हैं, हमें भी उनसे सीखना चाहिए। उससे भी पहले सीखना होगा प्रकृति और पंचतत्वों का सम्मान करना। बाढ़ दर्दनाक होती है, गहरी सी चीख हर बार वह मानव जीवन के सीने पर खींच रही है लेकिन इसके लिए प्रकृति को दोषी ठहराने की जगह प्रकृति को साथ रखकर सुधारवादी सोच पर कार्य करने की आवश्यकता है। हमें शहरी बसाहट पर पुनः मंथन करना होगा, बेशक आबादी का बोझ हमारी चिंता बढ़ा रहा है लेकिन फिर भी हमें प्रकृति के साथ चलकर ही राह निकालनी होगी उसके विरोध में या उसे नुकसान पहुंचाकर हम अपने लिए कोई भविष्य नहीं गढ़ सकते।
संदीप कुमार शर्मा, संपादक, प्रकृति दर्शन
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