Description
तपिश से बदलती दिनचर्या
तापमान बढ़ रहा है, यह वैश्विक चिंता का विषय है लेकिन इसे लेकर जमीनी जागरुकता बेहद खस्ताहाल में है। हम तापमान को बढ़ने से नहीं रोक पा रहे हैं लेकिन बड़ा बदलाव यह हुआ है कि हमने अपनी दिनचर्या, कारोबार और जीवन को तपिश के अनुसार तय करना सीख लिया है। तपते प्रदेशों और शहरों में से कुछ स्थान ऐसे भी हैं जिनमें दोपहर के समय तीन से चार घंटे बाजार पूरी तरह से बंद रहने लगे हैं, यह समझा जा सकता है कि ऐसे निर्णय कारोबार और जनस्वास्थ्य के मद्देनज़र लिए जा रहे हैं लेकिन क्या तपिश के पीछे चलना सही है ? क्या तपिश की राह चलना ठीक है सोचिएगा क्योंकि वह तो 50 के आसपास पहुंच गया है और इसी तरह से हालात रहे तो उसकी वृद्वि को रोकना असंभव हो जाएगा। ऐसे में क्या करें और क्या किया जाए यह सवाल भी के जेहन में है, हमें करना यह होगा कि तपिश के अनुसार दिनचर्या गढ़ने से बेहतर है कि एकजुट होकर तापमान को अपने अनुसार चलने पर विवश किया जाए, यह संभव है अभी पूरी तरह से उम्मीद खत्म हो गई है ऐसा भी नहीं है लेकिन यह भी सोचना है कि सुधार की शुरुआत में देर भी हमें भारी पड़ेगी। जिंदगी में समझदारी की सुबह हम ला नहीं रहे हैं, नादानी की दोपहर बीतती जा रही है और अब क्या हम सांझ की ओर पहुंचकर मानव जीवन में एक स्याह रात घोलना चाहते हैं…या चाहते हैं कि अपनी भावी पीढ़ी के लिए एक शानदार मुस्कुराते जीवन वाली सुबह।
हमें आदत डालनी होगी बदलाव की क्योंकि हमें बदलाव जल्द स्वीकार नहीं हैं। हम उस पुराने ढर्रे पर ही चल रहे हैं। हम वैश्विक नीतियों को पढ़ना नहीं चाहते, हम देश और दुनिया के पर्यावरणीय संकटों को समझना नहीं चाहते, हम संकटों से बचकर भागना पसंद करते हैं, हम संकटों से मुंह छिपा रहे हैं लेकिन हकीकत में हम उसे प्राथमिकता के दायरे में रखते ही नहीं हैं, 5 जून को हर वर्ष विश्व पर्यावरण दिवस पर लाखों पौधों का रोपण होता है और इसी तापमान के कारण और रखरखाव के अभाव में अधिकांश पौधे सूखकर दम तोड़ देते हैं। उठाईये ना मांग कि जब मौसम चक्र बदल गया है तो विश्व पर्यावरण दिवस की तिथि भी बदलनी चाहिए ताकि अधिक से अधिक पौधे बचाए जा सकें…। हमें बदलना होगा क्योंकि हम बच्चों को संकट की समझ नहीं दे रहे हैं क्योंकि भविष्य उनका है और उन्हें जूझने के लिए तैयार रहना होगा और यदि आज उन्हें समझदार नहीं बनाया गया तो यकीन मानिए कि तापमान सबकुछ सुखा कर रख देगा, झुलसाकर रख देगा, हम एक ऐसी दुनिया न बनाएं जहां केवल जिंदगी से जूझती हुए शरीर नजर आएं…जहां उम्मीद और धरा हमेशा के लिए तपती हुई बांझ हो जाए…।
संदीप कुमार शर्मा,
प्रधान संपादक, प्रकृति दर्शन
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