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संपादकीय
पहले वाली ठंड, चाय का आनंद और बिनाका गीतमाला
मुझे याद है जब छोटे थे तब ठंड का मौसम आता था तब एक ही स्वेटर पहना करते थे लेकिन ठंड तब पीड़ा नहीं देती थी, पूरा परिवार उसका गुलाबी आनंद उठाया करता था। गुड तिल के लड्डू, गरमागरम चाय और परिवार के साथ बैठकर वो लंबी चर्चा का आनंद। तब टीवी नहीं थे, रेडियो था और बिनाका गीतमाला में उस दौर के नये पुराने गीतों की मिठास थी और साथ थी अमीन सयानी की गहरी आवाज़। कहां खो गए न सब एक साथ…।
मौसम भी बदला, तकनीक भी बदली, हम भी बदले और वह मीठा सा अनुभव भी अब ठिठुरन के बीच कांपता सा कहीं न कहीं हमसे दूर जा रहा है। आज की पीढ़ी शायद सोच भी नहीं पाएगी कि वह कम संसाधनों वाला दौर कितना सुखद था, आज जब कि पलक झपकते ही संदेश इधर से उधर हो जा रहे हैं लेकिन न जानें फिर भी दूरियां कोसों की हैं। यहां मानव के स्वभाव की बात कर रहा हूं इसलिए क्योंकि प्रकृति पर मानव के स्वभाव का गहरा असर होता है। प्रकृति यदि बिना हमारे हस्तक्षेप के स्वयं संचालित होती रहे तो कोई दिक्कत नहीं है लेकिन यदि उसमें मानव का हस्तक्षेप है तो चिंतन तो जरुरी है। समाज और मानव में भावनाओं का गहरा सूखापन आ रहा है, मानव के आपसी रिश्तों में स्वार्थ सर्वोपरि है और जब स्वार्थ से वशीभूत मानव अपने रिश्तों की परवाह नहीं कर रहा है तब प्रकृति और उसके रिश्ते तो बहुत गहरा सवाल हैं….?
हम चिंतित हैं क्योंकि ठंड कुछ हिस्सों में बहुत अधिक बढ़ रही है, कहीं बारिश अधिक हो रही है, कहीं गर्मी भीषण होती है, कहीं तूफान अधिक आ रहे हैं, उन हिस्सों में सूखा पड़ने लगा है जहां अच्छी बारिश हुआ करती थी, उन हिस्सों में बारिश के कारण आफत है जहां कभी सूखा पड़ता था, उन हिस्सों में ठंड कंपकंपा रही है जहां केवल एक स्वेटर में काम हो जाया करता था, उन हिस्सों में जहां बहुत अधिक ठंड होती थी वहां ठंडक घट रही है। ग्लेशियर पिघल रहे हैं, गर्मी में बर्फवारी हो जा रही है और ठंड में ग्लेशियर पिघल जा रहे हैं। सबकुछ उलटा ही उलटा हो रहा है। कहां हैं मानव और प्रकृति के बीच रिश्ता, कोई सामन्जस्य ? कुछ भी नहीं है ऐसे में मौसम चक्र जिस तेजी से बदल रहा है यकीन मानिए कि सबसे अधिक असर भी इसका मानव के जीवन पर ही पड़ने वाला है और जिसके लिए शायद हम तैयार नहीं है।
हम रोबोट बना रहे हैं, हम विज्ञान पर भरोसा करते हैं, हम दुनिया को आधुनिकता की ओर ले जा रहे हैं सब सही है लेकिन जो खो रहा है क्या उस पर मंथन जरुरी है, जो हो रहा है उस पर चिंता लाजमी है ? प्रकृति और मानव के बीच मधुर रिश्ते ही इस सृष्टि को बेहतर बना सकते हैं लेकिन उनमें यदि दरकन आती है तो यकीन मानिएगा कि कुछ भी शेष रहने वाला नहीं है। रही बात ठंड की तो जिस तरह ग्रीष्म में तापमान बढ़ रहा है उसी तरह शीत में तापमान नीचे की ओर गिर रहा है, दोनों स्थितियां खतरनाक हैं। अधिक ठंड भी खतरनाक है और अत्यधिक गर्मी भी।
सोचिएगा क्योंकि वर्ष 2024 में जो भी हुआ जैसा भी हुआ अब नववर्ष 2025 में उसे सुधारने का संकल्प लेना चाहिए।
आखिर में कबीर के इस दोहे के साथ अपनी बात समाप्त करता हूं-
डाली छेड़ूँ न पत्ता छेड़ूँ, न कोई जीव सताऊँ।
पात-पात में प्रभु बसत है, वाही को सीस नवाऊँ
संदीप कुमार शर्मा, संपादक, प्रकृति दर्शन
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