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JUNE 2023 रण है अब पर्यावरण

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August 2023 सावन भादो विशेष

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JULY 2023 शिक्षा में हो पर्यावरण का ठोस अंकुरण

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ध्यान रखिएगा पर्यावरण किसी एक की जिम्मेदारी नहीं है वह हरेक की जिम्मेदारी है, जागिये क्योंकि हम जिस बाजारवाद के दौर में जी रहे हैं वहां पर्यावरण की हरियाली भी आपको दिवास्वप्न दिखाकर बेच दी जाती है और आप खुशी-खुशी खरीदकर गुदगुदा उठते हो। हमें बाजार की नीयत और उसके बर्ताव पर नजर रखनी होगी साथ ही बच्चों की शिक्षा के साथ प्रौढ़ शिक्षा में भी पर्यावरण संरक्षण को प्रायोगिक विषय के तौर पर लाना होगा।
हमारे यहां सेवानिवृत्ति के बाद अक्सर वृद्वजन अपने आगे का समय व्यर्थ ही बिताते हैं, बेहतर होगा कि वृद्वजन अपने समूह बनाकर पर्यावरण की सूचनाओं पर चर्चा करें और उन्हें जानकारियों के तौर पर अपने परिवारों और बच्चों के साथ साझा करें, वे समूह बनाकर पौधारोपण और उनकी देखरेख का अभियान अपने हाथ में ले सकते हैं उनके ये प्रयास भी वर्तमान पीढ़ी और बच्चों के लिए किसी सबक से कम नहीं होंगे।

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Description

पर्यावरण को शिक्षा के मूल में शामिल करना होगा

शिक्षा हम किसे कहते हैं और किसे मानते हैं, क्या शिक्षा को हम अपनी समझ और जीवन को बेहतर बनाने के तौर पर देखते हैं या फिर उससे अधिक भी हम उससे सीख सकते हैं, ऐसा शायद इससे पहले नहीं सोचा गया क्योंकि इससे पहले इतनी विपरीत परिस्थितियां आई भी नहीं हैं। जी हां हमें बेहद सख्त लहजे में यह बात कहने, सुनने और समझने की आदत डाल लेनी चाहिए कि हमें शिक्षा में पर्यावरण को सर्वाधिक मूल में शामिल करना होगा। यह आसान नहीं है क्योंकि इसके अनेक कारण है लेकिन यह कहने में भी मुझे कोई गुरेज नहीं है कि यदि हम अब भी नहीं जागे तो कुछ साल बाद हालात इतने अधिक खराब हो जाएंगे कि शायद हमारी वापसी संभव न हो।
शिक्षा में पर्यावरण को लेकर हमें बहुत जल्द और बहुत सजग प्रयोग आरंभ करने होंगे। प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक पर्यावरण इतनी संजीदगी से पढ़ाया जाए कि हम आने वाली पीढ़ी को वैचारिक तौर पर तैयार कर सकें।
हालात बताते हैं कि शिक्षा में पर्यावरण की अब तक की जानकारियां या विषय वस्तु केवल ज्ञान परक हो सकती हैं लेकिन वह हमें भविष्य के लिए तैयार करने के लिए नाकाफी हैं। हमें बच्चों को सच और गहरा सच बताना होगा, पढ़ाना होगा, समझाना होगा और उससे बचने के उपाय पर खुलकर बात करनी होगी। बेहतर होगा कि इसके लिए एक नया सिलेबस गढ़ा जाए और उसे इतनी बारीकी से तैयार किया जाए कि बच्चे उसे केवल उत्तीर्ण होने या नंबर लाने के लिए न पढें़ बल्कि वह सिलेबस उन्हें समझदार और जिम्मेदार बनाने का कार्य करे। उन्हें अहसास दिलवाए कि वे मौजूदा दौर में कहां खडे़ हैं और उन्हें क्या करना होगा जिससे सुधार में वे अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर सकें।
पर्यावरण पढ़ाया अवश्य जा रहा है लेकिन वह संकटों से बचने को लेकर भावी पीढ़ी को तैयार नहीं कर पा रहा है, कुछ तरीके भी पुराने हैं और कुछ विषय में हालात को लेकर भी अपडेट कम हैं। पर्यावरण अति आवश्यक विषय बनाया जाए, उसे हरेक को पढ़ना अनिवार्य किया जाए और उसे लेकर केवल किताबी ज्ञान से कार्य नहीं चलेगा वरन प्रायोगिक ज्ञान अधिक दिया जाए, प्राकृतिक आपदाओं के कारण, हालात और स्थानों की जानकारियां स्कूल और कॉलेजों में तत्काल अपडेट हों। मैं जानता हूं कि पर्यावरण को हमारी अब तक पीढ़ी बेहद नीरस विषय के तौर पर पढ़कर आगे बढ़ गई लेकिन माफ कीजिएगा यही नीरसता हमें आज यहां इस हालत तक ले आई है।
प्रकृति दर्शन पत्रिका ने यह सोचा और यह शुरुआत की है कि शिक्षा वह क्षेत्र है जहां से हम पर्यावरण सुधार के ईमानदार प्रयास आरंभ कर सकते हैं, जहां से हम वह पौध खड़ी कर सकते हैं जिसे संकटों की चिंता होगी तो उनके पास उन संकटों के सुधार का ब्लू प्रिंट तैयार करने की क्षमता भी होगी।
ध्यान रखिएगा पर्यावरण किसी एक की जिम्मेदारी नहीं है वह हरेक की जिम्मेदारी है, जागिये क्योंकि हम जिस बाजारवाद के दौर में जी रहे हैं वहां पर्यावरण की हरियाली भी आपको दिवास्वप्न दिखाकर बेच दी जाती है और आप खुशी-खुशी खरीदकर गुदगुदा उठते हो। हमें बाजार की नीयत और उसके बर्ताव पर नजर रखनी होगी साथ ही बच्चों की शिक्षा के साथ प्रौढ़ शिक्षा में भी पर्यावरण संरक्षण को प्रायोगिक विषय के तौर पर लाना होगा।
हमारे यहां सेवानिवृत्ति के बाद अक्सर वृद्वजन अपने आगे का समय व्यर्थ ही बिताते हैं, बेहतर होगा कि वृद्वजन अपने समूह बनाकर पर्यावरण की सूचनाओं पर चर्चा करें और उन्हें जानकारियों के तौर पर अपने परिवारों और बच्चों के साथ साझा करें, वे समूह बनाकर पौधारोपण और उनकी देखरेख का अभियान अपने हाथ में ले सकते हैं उनके ये प्रयास भी वर्तमान पीढ़ी और बच्चों के लिए किसी सबक से कम नहीं होंगे।
हालात खस्ता हो रहे हैं, उत्तराखंड हो, हिमाचल हो या कोई प्रदेश…कोई बारिश की अधिकता तो कोई बारिश के संकट को ढो रहा है। कहीं तूफान तो कहीं बर्फबारी का खतरा है, कहीं नदी सूख रही हैं तो कहीं नदियां प्रदूषित होकर नाला बन गई हैं। कुएं पाट दिए गए हैं, तालाबों को खूंदकर शहर भाग रहे हैं, महानगरों का जहरीली हवा से दम फूल चुका है…और क्या चाहिए और कितना देखना है…? अपने अपने स्तर पर इस महत्वपूर्ण विषय पर कार्य आरंभ कीजिए क्योंकि शिक्षा की राह ही वह राह है जो पीढ़ियां सुधारेगी और पीढियांं तक संकट का सच और सुधार की परिभाषा गढ़ने की ताकत संचारित कर सकती है, हमें पर्यावरण सुधारने के लिए असंख्य हाथ, असंख्य दिल और दिमाग चाहिए तभी हम इस धरती को दोबारा स्वच्छ निर्मल और नदियों को सदानीरा बना पाएंगे।

संदीप कुमार शर्मा,
संपादक, प्रकृति दर्शन, राष्ट्रीय मासिक पत्रिका

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