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…काश कि वो झड़ी लौट आती
वह समय हममें से हरेक को याद है, नई पीढ़ी की बात तो कहना बेमानी है लेकिन पुरानी पीढ़ी जानती है कि एक सप्ताह की बारिश की वो झड़ी क्या थी, उसकी तासीर क्या थी और उसकी रूमानियत क्या थी ? ओह काश वह समय लौट आता, काश वह झड़ी लौट आती, काश वह अनुभव जो अब सूखकर यादों की दरारों में समा चुके हैं दोबारा हरे हो उठते….। आज की पीढ़ी ने क्या देखा है और क्या देख रही है और कल क्या देखेगी…? लेकिन क्या पुरानी पीढ़ी उस बारिश की हर मौसम लगने वाली झड़ी को भूल पाई है, सावन और भादो की बारिश, वह झूले, वह बारिश के गीत, रक्षाबंधन का वह पर्व…अहा सबकुछ जैसे एक दूसरे में पिरोया हुआ था।
एक सप्ताह मेघ बरसते थे, इतनी बारिश कि धरती भी तृप्त और मानव भी। तब बारिश रिश्तों में सीलन का सबब नहीं थी, वह रिश्तों में शीतलता का संचार करती थी, वह भरोसे का अंकुरण करती थी, वह बचपन को सींचती थी। इतनी बारिश के बाद भी आपदाएं कम ही आती थीं, घरों की खिड़कियां आबाद हो जाया करती थीं। तब बचपन घंटों खिड़कियों पर बैठकर गुजरता था, तब वह मासूम बावरा मन बाहरी की उस प्राकृतिक दुनिया में सपने बुनता था, आकृतियों को कल्पनाओं में सहेजता था। किसी तालाब में बारिश की मोटी सी बूंद के गिरने पर उसकी आकृति आक्टोपस तो कभी पानी से भरे गुब्बारे सी लगती थी…ओह वह समय बीत गया, अब बारिश से अधिक उसका इंतजार होता है, चक्र भी बदल गया है, जून के पहले सप्ताह में आने वाली बारिश अब कई दफा अगस्त तक नहीं होती। अब बारिश की अधिकता आफत को जन्म देती है, अब बारिश से भयभीत से हम उसके बर्ताव को समझ पाने में अपने आप को नाकाम पा रहे हैं, हालांकि कारण बहुत से हैं जिन्हें हमें समझना होगा, बारिश की रूमानियत को जीने वाली पीढ़ी चाहे तो अगली पीढ़ी में बारिश बो सकती है, यह सच है कि बारिश बोने से ही बारिश हासिल होगी, हमें हालात सुधारने होंगे, हमें अपनी आदतों को दुरुस्त करना होगा। सब कुछ संवारा जा सकता है, बस हम बदल जाएं।
बात यहीं खत्म नहीं होती कि बारिश ही तो है, बारिश केवल बारिश नहीं जनाब वह एक रिश्ता है उम्र का, बचपन की जिद है, कल्पना है और उम्र बीतने पर समय के बदलने की गहरी सी कशिश….। मन बार-बार कहता है कि काश वह झड़ी लौट आती ताकि हमारे आंगन और बचपन खिलखिला उठते।
संदीप कुमार शर्मा,
प्रधान संपादक, प्रकृति दर्शन
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