Description
फटे सपने, टूटे घर, तैरता और डूबता जीवन
महान संस्कृतियों का जन्म नदियों के किनारे ही हुआ है, लेकिन वह खूब फलीभूत हुईं और आज तक उन्हें उनके आधारभूत बसाहट के लिए जाना जाता है। नदी कभी भी हमारे रास्ते में नहीं आती है, हम उसके रास्ते में पहुंच जाते हैं, हमारी नगरीय बसाहट पर हमें दोबारा विचार और मंथन करने की आवश्यकता है कि क्या वह नदियों के रास्ते में या आसपास बहुत करीब हैं या फिर हमारी आंतरिक बसाहट में कहीं कोई अवरोध तो नहीं है? बाढ़ देश में विकराल होती जा रही है, बहुत से हिस्से हैं जो प्रतिवर्ष बाढ़ से प्रभावित होते हैं, जन और धन हानि का यह क्रम थम नहीं रहा है, इसे क्या रोका जा सकता है…और कैसे…? इस महत्वपूर्ण विषय पर बहुत जल्द कार्य करने की आवश्यकता है क्योंकि बाढ़ जिस शहर में प्रवेश करती है वहां सबकुछ बिखर जाता है…। घर हममें से हरेक का सपना है और उसे हम सपने की भांति ही संजोते हैं लेकिन जब घर बिखरता है, उसके पिल्लर ढहते हैं…मन गहरे तक बैठ जाता है, टूट जाता है। हमें समझना होगा कि केवल सिस्टम पर दोषारोपण काफी नहीं है, जिम्मेदारी सामूहिक है और इसे मिलकर समझा जा सकता है। नगरीय बसाहट पर बात करें तो इस बात का ध्यान रखा जाना बेहद आवश्यक है कि हम बारिश के प्रवाह वाले हिस्से या नदी के किसी हिस्से में तो प्रवेश नहीं कर रहे हैं। हमें समझना होगा क्योंकि बाढ़ का प्रवाह सबकुछ ले जाता है और दे जाता है तो केवल फटे सपने, टूटे घर, तैरता और डूबता जीवन, बदबूदार व्यवस्था पर गुस्सा और बहुत सा दर्द जो पूरे साल दरकने पर मजबूर कर देता है, सीखिए, समझिए क्योंकि कहा जाता है कि मुसीबत सबसे अच्छा सबक भी होती है और हम अब तक उसे सबक के तौर पर नहीं समझ पाए हैं…समझना होगा। कहा जाता है कि जब खुदाई हुई थी तब मोहन जोदड़ो और हडप्पा की संस्कृति इसलिए श्रेष्ठ पाई गई थी क्योंकि वहां खुदाई के समय नालियां और सड़कें सुव्यस्थित मिली थीं। सोचिएगा कि वह कालखंड कितना श्रेष्ठ था वरना बारिश और बाढ़ तो तब भी आती रही होगी…? विचार कीजिएगा कि हम एक श्रेष्ठ बसाहट और श्रेष्ठ सिस्टम पर कब तक गंभीर हो पाते हैं…।
संदीप कुमार शर्मा,
प्रधान संपादक, प्रकृति दर्शन
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