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धरा को जीने लायक बनाईये
वैज्ञानिकों का कहना है कि हमारी धरती अपनी धुरी से 1 डिग्री तक तक खिसक गई है। हम महाविनाश की ओर हम अग्रसर हो चुके हैं। यह सबकुछ ऐसे कैसे बदल रहा है, ऐसा क्या हो रहा है, ऐसा हम क्या रहे हैं जिससे यह सब कुछ इस तरह बदलता जा रहा है। यह गहरे मंथन का और सुधार में जुटने का वक्त है। संभल जाईये क्योंकि वैज्ञानिक आपको हर कदम चेतावनी दे रहे हैं और सुधार में जुटने का अनुरोध कर रहे हैं…जागिये दोस्तों क्योंकि जो सदियों से अपने आप एक सिस्टम संचालित हो रहा है उसमें सदियों तक कोई दिक्कत नहीं आई लेकिन अब जब वैज्ञानिकों का अध्ययन हमें सच से अवगत करवा रहा है कम से कम तब तो हमें पूरी तरह जाग जाना चाहिए और अपनी गलतियों को स्वीकार करना आरंभ कर देना चाहिए।
प्रकृति चहुंओर संकटों में घिरी है, सोचिए कि धरा हमारा आधार है और हमारा आधार ही कंपायमान है। धरती की थर्राहट हमें अंदर तक कितना चिंतित कर रही है यह मैं नहीं जानता लेकिन यह निश्चित है कि हम यूं ही मूक बने रहे तो एक दिन हमारा आधार खिसक जाएगा और हमारी मानव जाति गहरे संकट में जा धंसेगी। धरा पर मुश्किलों की लंबी फेहरिस्त है, केवल भूकंप ही एक महासंकट नहीं है, हमने उसे अनेकों संकटों की ओर धकेला है। दोस्तों बहुत ही शर्मसार हो जाना चाहिए कि एक धरती जिसके कण-कण में जीवन और सौंदर्य था हमने उसे स्याह बना दिया है, अनिश्चितता वाले हालातों को सौंप दिया है। तपिश से हम उसे झुलसा रहे हैं, उसका कंठ सूखने लगा है और हम हैं कि उसका सुरक्षित पानी भी उसके हिस्से नहीं छोड़ रहे हैं उसे भी खींचकर हम उसे अंदर तक बेपानी करने पर आमादा हैं। जंगल कट रहे हैं, प्रदूषण बढ़ रहा है। हम आखिर चाहते क्या हैं…? धरा को धरा ही रहने दीजिए। मनुष्य को इस सृष्टि में सबसे तेज बौद्विक क्षमता वाला माना जाता है तो क्या इस बौद्विक क्षमता का उपयोग प्रकृति और अपने ही सर्वनाश में किया जाना चाहिए या फिर इस खूबसूरत प्रकृति को सदियों के लिए संरक्षित और सौम्य बनाना हमारा कर्म होना चाहिए। खैर, जागने के लिए अभी चेतावनी हैं लेकिन यह भी संभव है कि यदि अब भी तंद्रा भंग नहीं हुई तो यकीन मानिय कि संभव हो कि इस रात की कोई सुबह न हो…बेहतर है हम अभी इसी पल से उठ खडे हों और जुट जाएं अपने सर्वश्रेष्ठ कर्म में। धरा का कंपन और धरा पर जीवन के अवसरों का सिमटना हमारे भविष्य के दरवाजे बंद कर रहा है। सोचिए, जागिये और जगाईये…मिलकर धरा को जीने लायक बनाईये…क्योंकि हमीं इसके दोषी हैं…।
संदीप कुमार शर्मा,
प्रधान संपादक, प्रकृति दर्शन पत्रिका
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