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November 2022 रहने दीजिए वायु में प्राण

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January 2021 हमारी दुनिया में परिंदे

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DECEMBER 2022 रुपहले परदे पर प्रकृति

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अब दौर फिर बदल रहा है क्योंकि प्रकृति बदल रही है, क्योंकि संकट अब जीवन पर है, चुनौती अब जीने की है, चुनौती अब धरा और जल को बचाने की है, चुनौती अब भविष्य को बचाने की है। इस बेहद महत्वपूर्ण दौर में एक बार फिर फिल्में और शार्ट फिल्में प्रकृति के संकट पर बननी आरंभ हो गई हैं। मेरा मानना है कि फिल्में अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम रही हैं और यदि फिल्मकार यह ठान लें कि अपनी प्रकृति को बचाने और संरक्षित करने की जिम्मेदारी वे फिल्मों के माध्यम से निभाएंगे तब सुधार की पहिया तेजी से दौडे़गा। जन-जन प्रकृति के संकट को, उस संकट के समाधान को समझ पाएगा। आवश्यकता रुपहले परदे को इस दौर में पूरी तरह सतर्क रहने की है, बेशक समाज में विषयों की कमी नहीं है लेकिन समाज, देश, विश्व तभी सुरक्षित रहेंगे जब हमारी प्रकृति सुरक्षित है, संरक्षित है इसके बिना कुछ भी नहीं है। सभी विषयों पर सर्वोपरि प्रकृति का यह कठिन दौर है इसे समझने में इतना समय बर्बाद नहीं किया जाना चाहिए। फिल्मों के विषयों में प्रकृति संरक्षण सर्वोपरि होना चाहिए।

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Description

फिल्मों के विषयों में प्रकृति संरक्षण सर्वोपरि हो

प्रकृति बदल रही है, फिल्मों में प्रकृति के संकट की आहट सुनाई देने लगी है। एक दौर रहा जब रुपहले परदे पर प्रकृति का सौंदर्य नजर आता था, एक दौर रहा जबकि सिनेमा के करिश्माई परदे पर हम कालजयी गीतों में प्रकृति निहारते रहे हैं, एक समय वह भी था जब लोकेशन पर अधिक खर्च नहीं किया जाता था, पुरानी फिल्मों की बात की जाए तो शूटिंग के लिए डायेक्टर अपने देश के प्राकृतिक स्थलों को तरजीह देते रहे हैं। कथाकार अपनी कथा में प्रकृति के उदाहरण शामिल करते रहे, गीतकार अपने गीतों में प्रकृति के इर्द गिर्द शब्दों को रचा करते थे, अभिनेता और अभिनेत्री प्रकृति के आसपास फिल्माए गए दृश्यों में बेहद सहज नजर आते थे, गीतकार प्रकृति की धुनों और पक्षियों की चहचहाहट को धुनों का हिस्सा बनाया करते थे, यह सच है कि रुपहले परदे पर प्रकृति के फिल्मांकन का सुनहरा इतिहास रहा है।
समय बदला, फिल्में बदली और लोकेशन भी। एक दौर लंबा बीता जब प्रकृति उस रुपहले परदे से कहीं छिटक गई, दूर हो गई। गीत और संगीत दोनों ही प्रकृति को भूलने लगे और अभिनय ने भी कथा का अनुसरण किया, गिनती की फिल्में प्रकृति पर इस दौर में सुनाई पड़ी।
अब दौर फिर बदल रहा है क्योंकि प्रकृति बदल रही है, क्योंकि संकट अब जीवन पर है, चुनौती अब जीने की है, चुनौती अब धरा और जल को बचाने की है, चुनौती अब भविष्य को बचाने की है। इस बेहद महत्वपूर्ण दौर में एक बार फिर फिल्में और शार्ट फिल्में प्रकृति के संकट पर बननी आरंभ हो गई हैं। मेरा मानना है कि फिल्में अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम रही हैं और यदि फिल्मकार यह ठान लें कि अपनी प्रकृति को बचाने और संरक्षित करने की जिम्मेदारी वे फिल्मों के माध्यम से निभाएंगे तब सुधार की पहिया तेजी से दौडे़गा। जन-जन प्रकृति के संकट को, उस संकट के समाधान को समझ पाएगा। आवश्यकता रुपहले परदे को इस दौर में पूरी तरह सतर्क रहने की है, बेशक समाज में विषयों की कमी नहीं है लेकिन समाज, देश, विश्व तभी सुरक्षित रहेंगे जब हमारी प्रकृति सुरक्षित है, संरक्षित है इसके बिना कुछ भी नहीं है। सभी विषयों पर सर्वोपरि प्रकृति का यह कठिन दौर है इसे समझने में इतना समय बर्बाद नहीं किया जाना चाहिए। फिल्मों के विषयों में प्रकृति संरक्षण सर्वोपरि होना चाहिए।
यह जिम्मेदारी हो जानी चाहिए कि निर्माता प्रकृति संरक्षण की फिल्मों के लिए पहल करें, निर्देशक ऐसी फिल्म बनाए जो समझदारी के बंद द्वार खोल जाए, कथाकार ऐसी कहानी लिखें जिससे प्रकृति के दर्द और उस दर्द के निवारण तक पहुंचा जाए, अभिनेता ऐसी फिल्मों को तरजीह दें जिसमें प्रकृति संरक्षण का कोई भी विषय उठाया गया हो, शंखनाद करें क्योंकि यदि नहीं जागे तो हम सभी एक दिन इतिहास हो जाएंगे।
मैं उन सभी निर्माताओं, निर्देशकों, अभिनेताओं-अभिनेत्रियों, गीतकारों, कथाकारों, संगीतकारों को प्रणाम करना चाहता हूं जिन्होंने प्रकृति संरक्षण पर पूर्व में फिल्में बनाई हैं और उन्हें भी जिन्होंने अब बनानी आरंभ कर दी हैं, प्रणाम उन दर्शकों को जो ऐसी फिल्मों को देखने पहुंच रहे हैं और उनका मौखिक प्रचार कर रहे हैं। प्रकृति जब तक खिलखिलाएगी तब यकीन मानिए कि रुपहला परदा अजर-अमर बना रहेगा लेकिन जिस दिन प्रकृति रूठ गई, धरा सूख गई, बूंदें हमेशा के लिए रसातल में समा गईं, बादल आसमान के उस दूसरी पार कोई अलग दुनिया में लौट गए, हवा प्रदूषण के जहर से बेदम हो जाए और इस दुनिया से हरियाली और पक्षी खत्म हो जाएं सोचिएगा उस दौर में कौन अभिनेता होगा और कौन निर्देशक…मेरी समझ यहां आकर ठहर जाती है कि अब तक प्रकृति के गहराते संकटों पर हम पूरी तरह गंभीर क्यों नहीं हैं…। रोते हुए हमारे बच्चे हमें अंदर तक झकझोर जाते हैं और बिलखती हुई प्रकृति हमें नजर नहीं आ रही…जागिये, मेरे दोस्तों…जागिये।

संदीप कुमार शर्मा,
संपादक, प्रकृति दर्शन

BALA DATT

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