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पर्यावरणीय खतरे के संकेत समझिये
कहा जा सकता है कि पहाड़ भी नारियल की तरह होते हैं, बाहर से सख्त और अंदर से बेहद सरल, सहज और ईमानदार। यदि यह तर्क हम इस तरह समझें कि पहाड़ यदि अंदर से विनम्र नहीं होते तो क्या सबसे अधिक खूबसूरती पहाड़ों पर होती ? क्या कारण है कि पहाड सख्त होने के बावजूद खूबसूरती और प्रकृति को अपने गहरे उतरने की अनुमति देते हैं? सोचिएगा अवश्य क्योंकि यह कोरे तर्क का नहीं चिंतन और कार्य में जुटने का वक्त है, ऐसे समय जबकि पर्यावरण चहुंतरफा आहत हो रहा है, न वायु ठीक है, न जल स्वच्छ है, न ही मौसम में पूर्व की भांति लयात्मकता है, न ही तापमान घट रहा है, न ही मनमाफिक बारिश हो रही है और न ही जमीन की उर्वरा शक्ति पूर्व की भांति मजबूत रह पाई है। ऐसे वक्त में जिन पर्वतीय हिस्सों और विशेषकर हिमालयीन क्षेत्र जहां ग्लेशियर हैं, जहां से नदियों का उद्गम है जहां से जीवन की उम्मीद प्रवाहित होकर हम तक पहुंचती है, जहां से यह मौसम और पर्यावरण ताकत पाता है ऐसे महत्वपूर्ण हिस्सों में खलबली और बेतरतीब घटनाएं निश्चित तौर पर भविष्य को खतरे की ओर दु्रतगति से ले जा रही हैं। ग्लेशियरों का टूटना वैसे ही वैश्विक चिंता बन चुका है, चिंता यह है कि किस तरह से इस बिगडे़ हुए आज को संभाला जाए जिससे आने वाला कल सुधर सके लेकिन देखने में आ रहा है कि सबकुछ उतना सहज नहीं रह गया है।
दोस्तों हमें समझना होगा कि कभी हम केदारनाथ की आपदा को झेलते हैं, हम तात्कालिक तौर पर उस दर्द को असहनीय मानते हैं, कराह उठते हैं और फिर सबकुछ सामान्य हो जाता है, अब जोशीमठ के हालात चिंता बनकर सभी के मस्तक पर नजर आ रहे हैं। कैसे संभलेगा यह सब और कब इसके संभाले जाने के लिए हमारे जागरुक होकर उठ खड़े होने का समय आएगा? आज जोशीमठ में जो हो रहा है वह संकेत समझे जाएं तो आने वाले वक्त में पहाड़ों को गंभीर चुनौतियों से होकर गुजरना तय है, लेकिन दूसरा पक्ष यह भी है कि केवल पहाड़ टूटेंगे या कोई नगर, गांव ही उस संकट को सहेगा ऐसा कतई नहीं है क्योंकि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रकृति के किसी भी तत्व में हलचल कहीं भी हो लेकिन उसका असर इस सृष्टि पर सभी दूर होता है। वर्तमान में तो चुनौतियों का अंबार लगा है, जो प्रकृति को समझते हैं, पढ़ रहे हैं, रिसर्च कर रहे हैं, जिन्हें दिखाई देता है कि 10 से 20 साल बाद नदियों का भविष्य क्या होगा, वह होंगी या नहीं होंगी, होंगी तो किस स्थिति में होंगी, पहाड़ होंगे या नहीं होंगे और पहाड़ न होने या ढहने के नुकसान किस स्तर पर हो सकते हैं, हिमालय के ग्लेशियर के पिघलने की चिंता में रिसर्च में बहुत सा लिखा जा रहा है लेकिन यहां रिसर्च या अध्ययन का कोई गहरा असर इसलिए नजर नहीं आ रहा है क्योंकि जागरुकता का प्रतिशत बेहद कम है, प्रकृति को समझने वाले, महसूस करने वाले, उसे सुधारने हेतु आगे आने वाले और उसके दर्द पर चीख उठने वाले बेहद कम हैं। जब तक हर व्यक्ति तक जागरुकता नहीं पहुंचेगी, जब तक पहाड़ का दर्द यहां सतही जमीन पर रहने वाले भी महसूस नहीं करेंगे या सतही हिस्सों के प्रदूषण पर पर्वतीय हिस्सों के रहवासी चिंतित होना आरंभ नहीं होंगे तब तक हालात संभालना आसान नहीं हैं।
ध्यान रखना होगा कि पर्यावरण सभी के लिए जरुरी है इसलिए सभी की जिम्मेदारी है, सुधार और जागरुकता छोटे स्तर पर आरंभ होकर वृहद आकार ले सकती है, लेकिन शुरुआत तो हमें ही करनी होगी, अपने घर, मोहल्ले, गांव, कस्बे और शहरों से…। जागिये दोस्तों पर्यावरण जिस स्थिति में है वह समझा या सुधारा नहीं गया तो यकीन मानियेगा कि कोई कल नहीं होगा और यदि रहा भी तो इतना दर्दभरा दौर होगा जिसे जीना हर पल मरने के समान होगा।
प्रकृति को अध्ययन का हिस्सा बनाईये, ऐसी खबरों को पढना और उसकी चर्चा करना आरंभ करें, हम रिसर्च को पढना आरंभ करें, वैश्विक संकट पर गंभीर होना आरंभ करें क्योंकि पर्यावरण एकमात्र वह पक्ष है जिसे लेकर संपूर्ण विश्व चिंतित है, हम उस चिंता को महसूस करें और बेहतर की ओर अग्रसर होना आरंभ करें, शुरुआत युवा कर सकते हैं।
संदीप कुमार शर्मा,
प्रधान संपादक, प्रकृति दर्शन पत्रिका
- Sea and River Otter Protection: Why Their Conservation Matters for Our Environment - June 11, 2025
- How to Effectively Reduce Global Water Pollution: Country-wise Data, International Policies, and Role of Prakriti Darshan-Nature and Environment Magazine - June 10, 2025
- Plastic Pollution Global Crisis: Global Impact, Health Risks, and International Solutions for a Cleaner Future - June 9, 2025
BALA DATT –
Excellent