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बारिश को उत्सव नहीं आफत कहा जाने लगा है
जिन्होंने बारिश वाला वह बचपन जीया है, जिन्होंने बूंदों की निर्मलता को हथेली पर महसूस किया है जिन्होंने झूले देखे हैं जिन्होंने सावन भी देखे और बारिश के उस दौर में कर्णप्रिय गीत भी सुने हैं। अहा कैसा अनूठा रिश्ता था बारिश से। एक पूरी की पूरी उम्र बीत जाने के बाद भी बारिश की वह गहरे तक छू लेने वाली शीतलता महसूस होती है क्योंकि उस दौर में हम प्रकृति के साझीदार थे, उसे महसूस करते थे, जीते थे, उसके उत्सव मनाते थे और आनंदित हो उठते थे। अब बारिश को उत्सव नहीं आफत कहा जाने लगा है। सोचिएगा कि उत्सव से आफत तक के इस सच में मानव की गलतियां कहां और कितनी गहरी हैं, सोचिएगा कि बारिश का इंतजार करते समाज को आखिर हो क्या गया है कि वह इसे आफत की संज्ञा दे बैठा है। यह भी सोचिएगा कि बारिश के बिना क्या हमारे समाज में और हमारे व्यवहार मे हम हरेपन की उम्मीद कर सकते हैं।
बारिश को देखना हो और उसे जीना हो तो बच्चे बन जाईये, खूब नहाईये और उसके प्रति दुराभाव के शब्दों का प्रयोग बंद कर दीजिए। आज भी हमारे लिए आफत बनने वाली बारिश असंख्य जीव जन्तुओं के लिए तथा असंख्य पौधों के लिए जीवनदायिनी है। सोचिएगा यदि बारिश नहीं होगी तो हम कैसे जी पाएंगे। बचपन की उन यादों में एक बार दोबारा लौट जाईये और हो सके तो अपने बच्चों और अपने परिवार को भी साथ ले जाईये। उन्हें बताईये कि बचपन था क्या, कैसे जीया जाता था, क्या था कि आज भी बारिश की बूंदें यादों के उस सूखेपन को पलक झपकते ही हरा कर देती हैं। उम्र का सूखापन अधिक है क्योंकि इस दौर में बारिश नहीं है, बारिश है तो उसे हमने अपनी गलतियों और खामियों से आफत मान लिया है, जबकि सालों पहले हमारी बस्तियां होती थीं, उसमें आबादी रहाकरती थीं लेकिन बारिश उनके लिए कभी आफत नहीं बनीं। हमें बारिश को मन से जीना होगा, वह जीवन दायनी है और उसे आफत कहने वाले इस दौर में अपना आत्म अवलोकन अवश्य करें कि आखिर कहां गलतियां हुईं और कहां चूक हो गई कि बारिश का हमसे दोस्ताना टूट गया।
सोचिएगा वह पुरानी बारिश और पुराना सा बचपन आज तक एक रिश्ते के अटूट बंधन में बंधा है और वर्तमान दौर जो अपने आपको आधुनिक मानता है लेकिन यहां आकर वह मानवीय रिश्ता बुरी तरह से टूट चुका है। बारिश के साथ बचपन को सब याद करते हैं लेकिन बारिश को आफत कहे जाने पर आपत्ति सभी दर्ज नहीं करवाते। जिन हिस्सों में वह आफत हो रही है उन हिस्सों में प्रकृति से मानव द्वारा कहीं न कहीं कोई साजिश या छेड़छाड़ अवश्य की गई होगी वरना प्रकृति तो सृजन करती है लेकिन वह विध्वंस के तौर पर क्यों पहचानी जाने लगी है। सोचिएगा उस रिश्ते के बारें में जिस पर बारिश की बूंदें हर बार गिर रही हैं लेकिन आखिर क्या जिद है कि प्रकृति से वह रिश्ता सूखता ही जा रहा है।
संदीप कुमार शर्मा, प्रधान संपादक, प्रकृति दर्शन
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