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पक्षियों की दुनिया के बाद अब हमारी बारी है
ये तापमान, ये गर्मी, ये झुलसन और ये मुसीबतों का दौर थमेगा या नहीं यह गहरी चिंता का विषय है। इस गर्मी में वृक्षों से पक्षियों के गिरकर मरने की सूचनाएं हम सभी को परेशान कर रही हैं लेकिन मुझे लगता है यह दौर अपने साथ तपिश और पीड़ा लेकर इसलिए आया है ताकि हम समझ सकें कि आने वाले पांच वर्ष और दस वर्षों का चेहरा कितना सुर्ख होगा। सोचिएगा तापमान यदि यूं ही बढ़ता रहा और हम इसी तरह लापरवाह बने रहे तो यकीन मानिए कि पक्षियों की दुनिया के बाद हमारी बारी है। सोचिएगा उन मासूम परिंदों के विषय में चाहे बात भोपाल की हो या फिर रतलाम की जहां चमगादड़ तपिश के कारण मौत के मुंह में समा गईं। ये भी सोचिएगा कि उनके झुलते शरीरों ने कितना दर्द सहा होगा, उनके शरीरों से चिपटे बच्चे जन्म के साथ ही मरण तक जा पहुंचे हैं।
आज जब हम इस अंक का प्रकाशन कर रहे हैं तब तापमान की स्थिति ये है कि कहीं 47 डिग्री तो कहीं 48 डिग्री तक तपिश का ग्राफ पहुंच गया है। 50 और उससे उपर की स्थितियां इस धरती पर आग बरसाने वाली होंगी। तापमान इतना अधिक है कि हीट वेब में इस बार लगभग 150 से अधिक लोगों की देशभर में मौत हो चुकी है, लू के कारण पूरे दिन बाजारों में सन्नाटा पसरा रहता है।
जब भी बात हम इस दुनिया के झुलसने के दौर तक पहुंचने की करेंगे तो इसमें हमारी भौतिकवादी जीवन शैली काफी हद तक जिम्मेदार मानी जाएगी। सोचिएगा बाहर का तापमान 48 है और अंदर हम अपने आप को बचाने के लिए एसी में दुबक कर बैठे हैं। गर्मी का आलम यह है कि रात तक बाहर गर्म हवा ही रहती है। हम ये स्वीकार नही ंकर रहे हैं कि जिस ठंडक को हम सच मान रहे हैं वह भौतिक सुख ही इस बढ़ते तापमान का सबसे बड़ा कारण है। हर वर्ष 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है, इस दिन पौधारोपण होते हैं लेकिन इस दिन असंख्य पौधों को नर्सरी से बाहर निकालकर तपती धरती और गर्म हवा के बीच छोड़ दिया जाता है और पौधा वह तपिश सहन नहीं कर पाता और सूख जाता है। यह सब सालों से चल रहा है, कोई रोकता नहीं है। कोई सुधार की बात भी नहीं करता। कोई ऐसा प्लान भी नहीं बनाता जिससे हम यह समझ सकें कि कौन से वृक्ष हैं जिनकी इस दौर में धरती और पर्यावरण को सबसे अधिक आवश्यकता है। प्रकृति का आहत होता देख हम इन दिनों काफी बातें महसूस कर रहे हैं लेकिन यह तपिश के बढने के कारण जहां मौसम सामान्य होगा, बारिश होगी हम अपनी उसी लापरवाह दुनिया में लौट जाएंगे। खैर, तापमान बढ़ रहा है, हर वर्ष जलसंकट भी गहराता जा रहा है। भूजल और गहरे उतर रहा है, परिंदे मारे जा रहे हैं, छांव में बैठे हम सुधार न हो पाने पर केवल चिंतित हैं, हमारी चिंता और चिंतन के बीच एक खाई है वह में सुधार के कर्म तक पहुंचाने में नाकाम हैं
संदीप कुमार शर्मा, प्रधान संपादक, प्रकृति दर्शन
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