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APRIL 2022 पानी-पानी जिंदगानी

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JUNE 2022 झुलसते फूलों का दयार

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MAY 2022 दहकता जंगल, झुलसता भविष्य

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40 के ऊपर तापमान जाता है हम घरों में दुबक जाते हैं, एसी और कूलर से घर को ठंडा कर लेते हैं और चैन की नींद सो जाते हैं, बढ़ते तापमान के सच को पीठ दिखाकर लेकिन ये वन्य जीव कहां जाएं, क्या करें, किनसे कहें, कैसे बचें, कौन सुनेगा, कौन महसूस करेगा, कब महसूस करेगा और कैसे संरक्षित होगा इनका जंगल, ऐसे बहुत सारे सवाल ही सवाल हैं वह भी सुलग रहे हैं लेकिन जवाब नहीं है। सोचिएगा कि हमें ऐसी दुनिया मिली जिसमें सब कुछ अपने आप संचालित था, समय तय था और बिना अर्थ और तर्क कुछ भी नहीं लेकिन हमने इसी दुनिया में अपनी भी एक दुनिया बनाई जिसमें केवल स्वार्थ था, भौतिक सुखों की आपाधापी और अनिश्चितता की खोह। सोचिएगा उस तस्वीर को और देखिएगा परिवार के साथ बैठकर, मंथन कीजिएगा कि सूखे जंगल में तपते पत्थरों के नीचे यदि हम होंगे और हमारा परिवार होगा तब हम कैसे जीएंगे क्योंकि हालात यही रहे तो यह सच सामने आएगा, बेशक जंगल के पत्थरों के नीचे हम न भी छिपें लेकिन कांक्रीट के जंगल के बीच हमने जो आलीशान घर बनाए हैं वह भी तापमान बढ़ने पर उन्हीं चट्टानों की तरह बर्ताव करेंगे और हम उन घरों में इसी अवस्था में दुबके इस बीत चुके आज जो कल हाथ नहीं आएगा को सोच रहे होंगे और अपनी नाकामी पर उन्हीं दीवारों से सिर पीट रहे होंगे क्योंकि तपती चट्टानों में छिपे वन्य जीवों से बेशक उनके बच्चे कोई सवाल नहीं पूछेंगे लेकिन आपके बच्चे अवश्य सवाल पूछेंगे कि बताईये हमारा कसूर क्या था ? क्योंकि वे वन्य जीव तो कह नहीं सकते और हम तब मूक हो जाएंगे क्योंकि हमारे पास जवाब नहीं होगा केवल एक गहरा सन्नाटा होगा जिसमें हम एक छोटी सी उम्र बडी सी मुश्किलों के अनुबंध में जी रहे होंगे। तब न कोई सपना होगा, न मंजिल, न टारगेट और न ही कोई होड़। केवल जिंदगी को जीने का संघर्ष रोज, हर घंटे, हर मिनट हमारी दिनचर्या का हिस्सा होगा।

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Description

काश की हम समझ पाते वन्य जीव कैसे कहेंगे अपना दर्द

उस फोटोग्राफ ने मुझे हतप्रभ भी कर दिया और मैं गहरे तक अंदर पत्थर हो गया क्योंकि मैं उस तस्वीर में मानव के भविष्य को सुस्पष्ट देख पा रहा था….ओह कितनी गहरी पीड़ा, दर्द और अनिश्चितता…। सुना था कि एक समय मानव कंद्राओं में निवास करता था, यह तस्वीर भी कुछ उसी युग की पुर्नरावृत्ति है। मप्र सागर के शशांक तिवारी की उस तस्वीर ने मेरे अंदर के संघर्ष को और अधिक बढ़ा दिया है। बुंदेलखंड सूख रहा है, पानी और जिंदगी दोनों ही चुनौती हैं, तापमान चढ़ता जा रहा है, जंगलों के सूखे जिस्म सुगल रहे हैं, कभी आग तो कभी तपिश के कारण वन्य जीवों का जीवन बेहद मुश्किल हो चला है। तस्वीर को कवर पेज पर लिया है, आप देख सकते हैं और संभवतः यह तस्वीर इस सदी की उन तस्वीरों में श्रेष्ठ कही जानी चाहिए जो सोई हुई हमारी भीड़ को झकझोरकर उठा सकती है, हमारी नींद छीन सकती है, हमें चिंतन को गहरे सागर की गर्त में उतर जाने को विवश कर सकती है। दर्द की इंतेहा है दोस्तों…।
40 के ऊपर तापमान जाता है हम घरों में दुबक जाते हैं, एसी और कूलर से घर को ठंडा कर लेते हैं और चैन की नींद सो जाते हैं, बढ़ते तापमान के सच को पीठ दिखाकर लेकिन ये वन्य जीव कहां जाएं, क्या करें, किनसे कहें, कैसे बचें, कौन सुनेगा, कौन महसूस करेगा, कब महसूस करेगा और कैसे संरक्षित होगा इनका जंगल, ऐसे बहुत सारे सवाल ही सवाल हैं वह भी सुलग रहे हैं लेकिन जवाब नहीं है। सोचिएगा कि हमें ऐसी दुनिया मिली जिसमें सब कुछ अपने आप संचालित था, समय तय था और बिना अर्थ और तर्क कुछ भी नहीं लेकिन हमने इसी दुनिया में अपनी भी एक दुनिया बनाई जिसमें केवल स्वार्थ था, भौतिक सुखों की आपाधापी और अनिश्चितता की खोह। सोचिएगा उस तस्वीर को और देखिएगा परिवार के साथ बैठकर, मंथन कीजिएगा कि सूखे जंगल में तपते पत्थरों के नीचे यदि हम होंगे और हमारा परिवार होगा तब हम कैसे जीएंगे क्योंकि हालात यही रहे तो यह सच सामने आएगा, बेशक जंगल के पत्थरों के नीचे हम न भी छिपें लेकिन कांक्रीट के जंगल के बीच हमने जो आलीशान घर बनाए हैं वह भी तापमान बढ़ने पर उन्हीं चट्टानों की तरह बर्ताव करेंगे और हम उन घरों में इसी अवस्था में दुबके इस बीत चुके आज जो कल हाथ नहीं आएगा को सोच रहे होंगे और अपनी नाकामी पर उन्हीं दीवारों से सिर पीट रहे होंगे क्योंकि तपती चट्टानों में छिपे वन्य जीवों से बेशक उनके बच्चे कोई सवाल नहीं पूछेंगे लेकिन आपके बच्चे अवश्य सवाल पूछेंगे कि बताईये हमारा कसूर क्या था ? क्योंकि वे वन्य जीव तो कह नहीं सकते और हम तब मूक हो जाएंगे क्योंकि हमारे पास जवाब नहीं होगा केवल एक गहरा सन्नाटा होगा जिसमें हम एक छोटी सी उम्र बडी सी मुश्किलों के अनुबंध में जी रहे होंगे। तब न कोई सपना होगा, न मंजिल, न टारगेट और न ही कोई होड़। केवल जिंदगी को जीने का संघर्ष रोज, हर घंटे, हर मिनट हमारी दिनचर्या का हिस्सा होगा।
इस तस्वीर के लिए आदरणीय शशांक जी को मैं साधुवाद देना चाहता हूं कि उनकी कोई नज़र तो थी जो वे वहां ठिठक गए और इतिहास को आईना दिखाने वाली तस्वीर वे ले आए और वर्तमान को सौंप दी। मैं यहां आभार कहना चाहता हूं अपने एक गहरे और विचारों में बेहद करीब आ चुके मित्र माधव चंद्र चंदेल जी जो शैक्षिक मल्टी मीडिया अनुसंधान केंद्र (ईएमएमआरसी), सागर के प्रोडयूसर हैं, यहां उनका जिक्र दोस्तों इसलिए भी लाज़मी है कि शशांक जैसे साथियों से मिलवाने और हमें समय-समय पर प्रकृति को लेकर बेहतर होने में उनका सहयोग हमेशा मिलता रहा है। दोस्तों संभलिए कि कोई और जहां नहीं है जो हमें समझाएगा कि अब हमें प्रकृति के चीत्कार को सुनना, समझना होगा और सुधार को बिना शर्त बढना होगा। वरना आज केवल जंगल जल रहा है, लेकिन अब भी वह है लेकिन ऐसा न हो कि कल न जंगल हो और हमें बिना हरियाली, हवा और पानी के जीना पडे़।

संदीप कुमार शर्मा,
प्रधान संपादक, प्रकृति दर्शन

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