
संदीप कुमार शर्मा,
प्रधान संपादक,
प्रकृति दर्शन, पत्रिका
जंगल कटने के नुकसान की भरपाई क्या संभव है ?
जब घर टूटता है, तब टूटता है आदमी
जब वृक्ष कटता है, गर्त होती हैं पीढ़ियां।
एक वृक्ष का हिसाब पूछिये तो भला कि जब बीज से वृक्ष बनता है तब क्या-क्या सहता है और क्या भोगता है ? कितनी गर्मियां, कितनी सर्दी, कितने तूफान सहकर कोई पौधा वृक्ष बनता है और सोचिए कि जब उसे उखाड़ दिया जाता है तब हम कितना कुछ उजाड़ देते हैं...? यहां तो बात केवल एक वृक्ष की नहीं बल्कि पूरे के पूरे गहरे और गहन जंगल को काट देने की हो रही है और सोचिएगा तब हम कितना खोएंगे...उसका हिसाब शायद गणितीय तौर पर हम ना निकाल पाएं...? लेकिन व्यवहारिक तौर पर समझ सकते हैं कि एक पूरे जंगल के कटने का आशय केवल प्रकृति की बर्बादी नहीं है बल्कि वह हमारे पूरे जीवन और भविष्य को बुरी तरह तहस-नहस कर जाएगा। मेरा एक ही सवाल है कि एक वृक्ष के उगने से लेकर उसके फायदों का गणितीय हिसाब लगाकर देखियेगा और तब बताईयेगा कि क्या जंगल कटने के नुकसान की भरपाई संभव है ?
सरकारी योजनाओं के पीछे के तर्क बहुत खूबसूरत और लुभावने होते हैं कि हमें-
सुविधाएं होंगी।हमें विकास मिलेगा।
हमें रोजगार मिलेगा।
हम आर्थिक तौर पर संपन्न होंगे।
क्या कोई बताएगा कि
क्या हमें ऑक्सीजन मिलेगी ?
क्या हमें समय पर और प्रचुर बारिश मिलेगी ?
क्या हमें इस झुलसन से राहत मिलेगी ?
क्या हमें बेहतर भविष्य की उम्मीद की छांह मिलेगी ?
क्या हमें सुरक्षित भविष्य की गारंटी मिलेगी?
क्या जमीन प्यासी नहीं होगी?
क्या काटे गए वृक्षों के नुकसान का बारीकी आकलन किया गया है?
गहरा सन्नाटा है इन सवालों पर क्योंकि योजनाओं का निर्धारण हमेशा अर्थ की पीठ पर किया जाता है, मानवीयता और सामाजिक पहलुओं को योजनाओं में कितनी जगह मिलती है, यह सभी जानते हैं। मौजूदा कोरोना संक्रमण काल हमें बता गया है कि हम अपनी मेडिकल ऑक्सीजन व्यवस्था पर कितने निर्भर रह सकते हैं और हमें प्रकृति को सहेजने की कितनी अधिक आवश्यकता है। बेहतर होगा कि जंगल की बली चढ़ाने से पहले हजार बार सोचा जाए, प्रकृति को नोंचना एक मानवीय अपराध की श्रेणी में ही आना चाहिए। हालात तेजी से बिगड़ रहे हैं, प्रकृति संरक्षण पर वैचारिक शून्यता भयभीत करने वाली है लेकिन यह चुप्पी निश्चित ही हमारे मूल को बर्बाद कर जाएगी। बात करें बक्सवाहा में हीरे खदान की तो यहां केवल प्रकृति ही नहीं बल्कि पुरातन संस्कृति भी दांव लगी है। एक ओर जब बक्सवाहा के हरे भरे जंगल को खोदकर हीरे निकालने की तैयारी पूर्णता की ओर पहुंच रही है ठीक उससे पहले यह भी पता चल गया कि बस्सवाहा में 25 हजार साल पुराने शैल चित्र मिले हैं और विशेषज्ञों द्वारा बताया जा रहा है कि यह रॉक पेटिंग आग की खोज के पहले के हो सकते हैं....। इस तरह हरे भरे गहरे जंगल के साथ यहां पुरातन संस्कृति भी मौजूद है, पर्यावरणविद इसे लेकर सक्रिय हैं और जंगल बचाने को उठ खड़े हुए हैं फिल्हाल हम इतना तय करें कि ऐसा नहीं होना चाहिए क्योंकि यह प्रकृति को गहरे तक आघात दे जाएगा। बात करें मप्र के खंडवा जिले में बीते कुछ वर्ष पूर्व बांध के निर्माण के कारण एक नगर हरसूद जो बैकवॉटर में पूरी तरह जलमग्न हो गया, काफी गांव भी डूबे हैं लेकिन हरसूद एक पुरातन नगर था और उसके डूबने का दर्द आज तक वहां के रहवासियों के चेहरों पर देखा जा सकता है, हालांकि उन्हें नए हरसूद छनेरा में बसा दिया गया लेकिन अपनी पुरातन नगरी को वह आज तक नहीं भूले हैं। यहां अधिकांश वे दावे अधूरे ही रह गए जो सरकार द्वारा किए गए थे। हम बात करें कि जंगल जो डूब गया, जीव जो डूब गए, असंख्य जैव विविधता जो डूब गई...उसका कोई हिसाब नहीं है। मैं केवल इतना पूछना चाहता हूं कि क्या विकास के लिए प्रकृति हर बार दम तोड़ती रहेगी ? आखिर हम कैसा विकास चाहते हैं, कैसी सनक है हमारी,कैसी सीमेंट की सडकें, कैसे सीमेंट के नगर चाहते हैं, कैसी और कितनी सुविधाओं का अंबार हमें चाहिए और आखिर इसकी कोई सीमा है या नहीं ? यह गैर जरुरी है क्योंकि यहां सभी तक आकर इसलिए हार जाएंगे क्योंकि हमारे पूर्वजों ने प्रकृति के साथ अपना जीवन जीया है और उन्होंने विकास के पीछे दौड नहीं लगाई यही वजह थी कि उनकी आयु 100 के आसपास होती थी, लेकिन हम विकास वाले युग में जीने के बाद भी 55 से 60 तक उस औसत आयु को खींच लाए हैं, सोचने को बहुत कुछ है...पहले घर छोटे थे लेकिन हवादार थे, आंगन नीम होता था, बीमारी नहीं होती थी, पैदल चलना पसंद करते थे, दवाईयों को कोई खर्च नहीं था, मैदानी खेल पसंद किए जाते थे....ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जो आज देखने को नहीं मिलते...। बहरहाल प्रयास किया है कि यह अंक बक्सवाहा और हरसूद पर केंद्रित कर सकें। हरसूद के दर्द से सीख लें और बक्सवाहा पर इतने कठोर निर्णय को बदला जाना चाहिए...?